विष्णु भक्ति का माहात्म्य

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सूतजीने कहा – सभी शास्त्रोंका अवलोकन करके तथा पुन :- पुनः विचार करके यह एक ही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्यको सदैव भगवान् नारायण का ध्यान करना चाहिए –

आलोक्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः |
इदमेक सुनिष्प्त्र ध्येयो नारायणः सदा ||

जो व्यक्ति एक निष्ट होकर नित्य उस नारायणका ध्यान करता है, उसके लिए नाना प्रकारके दान, विभिन्न तीर्थोंक: परिभ्रमण, तपस्या और यज्ञोंका संपादक करने से क्या प्रयोजन ? अर्थात श्रीमन्नारायण का ध्यान सर्वोत्कृष्ट है |

छियासठ हजार तीर्थ भगवांन नारायण के प्रणाम की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते है | समस्त प्रायश्रित और जितने भी तप-कर्म है, इन सभी में भगवान् कृष्ण का स्मरण ही सर्वश्रेष्ठ है, ऐसा समझना चाहिए | जिस पुरुष की अनुरक्ति सदैव पापकर्म में रहती है, उसके लिए एकमात्र श्रेष्टम प्रायश्रित भगवान् हरिका स्मरण है |

जो प्राणी एक मुहूर्तभर भी निरालस्य होकर नारायण का ध्यान कर लेता है, वह स्वर्ग प्राप्त करता है, फिर नारायण में अनन्य-परायण भक्त के विषम में क्या कहा जाय –

मुहूर्तमपि यो ध्यायेत्रारायणमतन्द्रित: |
सोअपि स्वर्गतिमाप्नोति कि पुनस्तत्परायणः ||

जो मनुष्य योगपरायण है अथवा योगसिद्ध है, उसकी चिंतवृति जागते, स्वप्न देखते तथा सुषुप्तावस्थामे भगवान् अच्युतके ही आश्रित होती है, | उठते, गिरते, रोते, बैठते, खाते, जागते भगवान् गोविन्द माधव विष्णु का स्मरण करना चाहिए |

अपने-अपने कर्म में संलग्न रहते हुए भगवान् जनार्दन हरि में चिंतको अनुरक्त रखना चाहिए, ऐसा शास्त्र का कथन है | अन्य बहुत-सी बातो को कहने से क्या लाभ-

स्वे – स्वे कर्मण्यभिरतः कुर्याच्चिन्त जनार्दने |
एषा शास्त्रानुसारोक्ति: किमन्यैर्बहुभाषिते :||

ध्यान ही परम धर्म है, ध्यान ही परम तप है, ध्यान ही परम शुद्धि है, अतः मनुष्यको (भगवद) ध्यानपरायण होना चाहिए | विष्णु के ध्यान से बढ़कर अन्य कोई ध्यान नहीं है, उपवास से बढ़कर अन्य कोई तपस्या नहीं है, अतः भगवान् वासुदेव के चिन्तनको ही अपना प्रधान कर्म मानना चाहिए | इस लोक और परलोक में प्राणी के लिए जो कुछ दुर्लभ है, जो अपने मनसे भी सोचा नहीं जा सकता, वह सब बिना मांगे ही ध्यान मात्र करने से मधुसूदन प्रदान कर देते है |

यज्ञ आदि उत्तम कर्म करते समय प्रमादवश स्खलनसे जो न्यूनता होती है, वह विष्णु के स्मरण मात्र से सम्पूर्णतामे परिवर्तित हो जाती है, ऐसा श्रुतिवचन है-

प्रमादत कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत् |
स्मरणादेव तद्विष्णो सम्पूर्ण स्यादिति श्रुति : ||

पापकर्म करने वालो की शुद्धिता ध्यान के समान अन्य कोई साधन नहीं है | यह ध्यान पुनर्जन्म देने वाले कारणों को भस्म करने वाली योगाग्नि है | समाधि (ध्यानयोग) से संपन्न योगी योगाग्नि से तत्काल अपने समस्त कर्मो को नष्ट करके इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त कर लेता है | वायु के सहयोग से ऊँचे उठने वाली ज्वाला से युक्त अग्नि जैसे अपने आश्रम कक्ष ( कमरे ) को जलाकर भस्म कर देती है, वैसे ही योगी (ध्यानयोगी ) के चित्तमें स्थित श्री विष्णु योगी के समस्त पापो को भस्म कर देते है | जैसे अग्नि के संयोग से सोना मलरहित हो जाता है, वैसे ही मनुष्यो का मल भगवान् वासुदेव के संनिध्यसे विनष्ट हो जाता है |

हजारो बार गंगास्नान तथा करोडो बार पुष्कर नामक तीर्थ में स्नान करने से जो पाप नष्ट होता है, वह हरि का मात्र स्मरण करने से नष्ट हो जाता है | हजारो प्राणायाम करने से जो पाप नष्ट होता है, वही पाप क्षणमात्र भगवान् हरिका ध्यान करने से निश्चित ही नष्ट हो जाता है | जिस मनुष्य के ह्रदय में भगवान् के शव विराजमान है, उसके मानसपर उन दुष्ट उक्तियों तथा पाखण्डता प्रभाव नहीं पड़ता, जो कलि के प्रभाव से प्रवृत है | जिस समय हरिका स्मरण किया जाता है, वही तिथि, वही दिन, वही रात्रि, वही योग, वही चन्द्रवल और वही लग्न सर्वश्रेष्ठ है | जिस मुहूर्त या क्षण में वासुदेव का चिंतन नहीं होता, वह मुहूर्त या क्षण हानि का समय है | वह अत्यंत व्यर्थ है | वह किसी भी प्रकार के लाभ सेन रहित होने के कारण मूर्खता एवं मूकता (गूंगेपन ) का समय है |

जिसके हृदय में भगवान् गोविन्द विद्यमान है, उसके लिए कलियुग भी सत्ययुग ही है | इसके विपरीत जिसके हृदय में अच्युत भगवान् गोविन्द का वास नहीं है | उसके लिए तो सतयुग भी कलियुग ही है | जिसका चिंत आगे और पीछे, चलते तथा बैठते, सदैव भगवान् गोविन्द में रमा हुआ है वह व्यक्ति सदा ही कृतकृत्य है-

कलौ कृतयुग तस्य कलिस्तस्य कृते युगे |
हृदये यस्य गोविन्दो यस्य चेतसि नाच्युत :||

यस्याग्रतस्तथा पृष्टे गच्छतस्तिष्टतोअपि वा |
गोविन्दे नियंत चेत: कृतकृत्य: सदैव स: ||

हे मैत्रेय ! जप, होप एवं पूजा आदिके द्वारा जिसका मन वासुदेव श्रीकृष्ण की आराधना में अनुरक्त है, उसके लिए इंद्र आदि का पद विघ्न के समान है |

जिन्होंने श्रीकेशव के चरणों अपने मनको अर्पित कर दिया है, वे गृहस्थाश्रमका परित्याग बिना किये ही, कठिन तपक्षर्या बिना किये ही पौरुषी (पुरषोत्तम पर ब्रह्मा की शक्ति ) माया के जाल को काट डालते है |

गोविन्द दामोदर का हृदय में वास रहने पर मनुष्य क्रोधियो के प्रति क्षमा, मूर्खो के प्रति दया और धर्म को संलग्न प्राणियों के प्रति प्रसत्रता प्रकट करते है-

क्षमां कुर्वन्ति क्रुद्धेषु दया मूर्खेषु मानवा: |
मुंद च धर्मशीलेषु गोविन्दे हृदयस्थिते ||
मुंद च धर्मशीलेषु गोविन्दे हृदयस्थिते ||

लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराभव: |
येषामिन्दीवरश्यामो हृदय स्थो जनार्दन: ||

स्नान-दान आदि कर्मो में तथा विशेष रूप से सभी प्रकार के दुष्कर्मो का प्रायचित करते समय भगवान् नारायण का ध्यान करना चाहिए |

जिनके हृदय में नीलकमल के समान सुन्दर श्याम वर्ण भगवान् हरि विराजमान रहते है, उन्ही को वास्तविक लाभ और जय प्राप्त होते है | उनका पराभव कैसे हो सकता है-

हरि में समर्पित चिंतवाले कीड़े-मकोड़े, पक्षी आदि जीव-जन्तुओ की भी उर्ध्व (उत्तम ) गति होती है | फिर ज्ञानसंपत्र मनुष्यो की गति के विषय में कहना ही क्या-

कीटपक्षिगणानां च हरो संन्यस्तचेतसाम् |
उदर्ध्र्वा होव गतिक्ष्चस्ति कि पुनरज्ञानिना नृणाम ||

भगवान् वासुदेव रूपी वृक्ष की छाया न तो अधिक शीतल होती है और न अधिक तापकारक होती है | नरक के द्धार का शयन करने वाली ( नरक में जाने से रोकने वाली) इस छाया का सेवन क्यों नहीं किया जाय-

वासुदेवतरुच्छाया नातिशीतातीतापदा |
नरकद्वारशमनी सा किमर्थ न सेव्यते ||

हे मित्र ! भगवान् मधुसूदन को अपने हृदय में अहर्निश प्रतिष्ठत रखने वाले प्राणी का विनाश करने में न तो महाक्रोधी दुर्वासा का शाप समर्थ है और न तो देवराज इंद्र का शासन ही समर्थ है-

न च दुर्वासस: शापो राज्यं चापि शचीपते: |
हन्तुं समर्थ हि सखे ह्र्त्कृते मधुसूदने ||

बोलते हुए, रुकते हुए अथवा इच्छानुसार अन्य कार्य करते हुए भी यदि भगवद विषयक चिन्तन निरंतर बना रहे तो धारणा (ध्येयपर चिंत की स्थिरता) को सिद्ध हुआ मानना चाहिए-

वद्तस्तिष्ठतोअन्यद्धा स्वच्छता कर्म कुर्वत: |
नापयति यदा चिंता सिद्धां मन्येत धारणाम ||

सूर्यमण्डल के मध्य विराजमान रहने वाले, कमलासनपर सुशोभित केयूर, मकराकृतकुण्डल और मुकुट से अलंकृत, दिव्य हार से युक्त, मनोहारिणी सुन्दर स्वर्णिम आभासे युक्त शरीर वाले, शंख-चक्रधारी भगवान् विष्णु का सदैव ध्यान करना चाहिए-

ध्येय: सदा सवि तृमण्डलमध्यवती नारायण: सरसिजासननिविष्ट: |
केयूरवान मकरकुण्डलवान किरीटी हारी हिरण्मयवपूर्धतशखचक्र: ||

इस संसार में भगवान् के ध्यान के समान अन्य कोई पवित्र कार्य नहीं है | श्रीविष्णु के ध्यान में ही सदा निरत रहने वाला मनुष्य चाण्डालका भी अत्र खाते हुए इस संसार के पाप के संलिप्त नहीं होगा, क्योकि ऐसा मनुष्य अपने स्वत्व को भगवान् में लीन कर देने से भगवन्मय हो जाता है, अत एवं उसकी भेद दृष्टि पूरी तरह निर्मूल हो जाती है |

प्राणी का चिंत सदा सांसारिक विषयवासनाओ के भोग में जिस प्रकार अनुरक्त रहता है, यदि उसी प्रकार नारायण में ही अनुरक्त हो तो इस संसार के बंधन से क्यों नहीं विमुक्त हो सकता-

सदा चिंत समसत्क जन्तोर्विषयगोचरे |
यदि नारायणेअप्येवं को न मुच्येत बन्धनात ||

सुतजीने फिर कहा- हे शौनक ! सर्वदा जिसके चिंत में भगवान् विष्णु की भक्ति विद्यामन रहती है, वह प्रतिक्षण श्रीविष्णु को ही नमन करता रहता है | इस स्थिति में वह हरि कृपा से अपने को पाप के समुद्र से तार लेता है |

वही ज्ञान है जिस ज्ञान का विषय गोविन्द हो, वही कथा है जिस कथा में केशव की लीला हो, वही कर्म है जो प्रभु के निमित किया जाय: अन्य बहुत सी बातो को कहने से क्या लाभ ? जो जिह्रा हरि की स्तुति करती है वही जिह्रा है, जो चिंत श्री हरि को समर्पित है वही चिंत है तथा भगवान् की पूजा करने में जो हाथ लगे हुए है वे ही वास्वविक हाथ है-

तज्ज्ञान यत्र गोविन्द: सा कथा यत्र केशव: |
तत्कर्म यत्र तदर्थाय किमन्यैर्बहुभाषिते: ||

सा जिह्रा या हरिं स्तौति तच्चिन्त यत्र तदर्पितम् |
तावेव केवलो श्लाघ्यौ यों तत्पूजाकरो करो ||

मनुष्य के पाप कर्म की जो राशि सुमेरु और मंदराचल के समान विशाल हो गयी हो, वह सम्पूर्ण पापराशि भी भगवान् केशव का स्मरण मात्र करने से ही विनष्ट हो जाती है-

मेरुमंदरमात्रोअपि राशि: पापस्य कर्मण:
केशवस्मरणादेव तस्य सर्व विनश्यति ||

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